उन्होंने जनसंख्या विन्यास और सामाजिक यथार्थ के वास्तविक संदर्भों से जोड़ते हुए वर्चस्ववादी समाज में साहित्य कला पर साम्राज्यवादी, फासीवादी सांप्रदायिक धर्मोन्मादी सामंतवादी शिकंजे को नृतात्विक दृष्टिभंगी से विश्लेषित करके बाबरी विध्वंस, कंधमाल में धार्मिक नरमेध, गुजरात नरसंहार, कारपोरेट राज व औद्योगीकरण शहरीकरण के परिप्रेक्ष्य में जल जंगल जमीन से बहुजनों की बेदखली के संदर्भ में भाषा, साहित्य और कलाओं से भी इनकी बेदखली के रेखांकित किया।